भारतीय संस्कृति में जीवन के 4 मुख्या उद्धेश्य या पुरुषार्थ कि चर्चा है – धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष | लेकिन इन चारो पुरुषार्थ की प्राप्ति का मुख्या साधन स्वास्थ्य शरीर है क्योंकि कहा भी गया है धर्म का पालन करने का साधन स्वास्थ्य शरीर है जिसकी बदौलत हम दैनिक कार्य,नित्यक्रिया,धर्म-व्रत,पूजा-पाठ कर सकते हैं सुख-साधन का उपभोग कर सकते हैं| स्वास्थ्य व्यक्ति काम धंधा करके धन अर्जित आसानी से करके घर-परिवार देश-समाज और विश्वकल्याण में योगदान दे सकता है| हमारे समाज में एक कथन विख्यात है कि “पहला सुख निरोगी काया दूजा सुख घर में हो माया तीजा सुख कुलवंती नारी |“ इसप्रकार हम देखते हैं कि हमारे चारों पुरुषार्थ कि प्राप्ति का आधार निरोगी काया अर्थात स्वास्थ्य शरीर ही है| आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे आयुर्वेदाचार्य के अनुसार शरीर को स्वास्थ्य और सुन्दर बनाये रखने के तीन मुख्या आधार स्तम्भ हैं- आहार,निंद्रा और ब्रहमचर्य|
आहार – हम क्या और क्यों खाते हैं कब और किस मात्रा में खाते हैं वह सुपाच्य है या नहीं मौसम के अनुकूल है या नहीं|
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निंद्रा -- हम कब और कैसे सोते हैं कितना सोते हैं क्या ये उम्र और मौसम के अनुकूल है?|
ब्रहमचर्य – हम कामुकता,क्रोध,लोभ,अहंकार आदि पर कितना नियंत्रण रखते है| |
उपयुक्त 3 कारण है जिसके सही विधि से सेवन करने से हम दीर्घायु जीवन जीते हैं अन्यथा इन तीनो के असंतुलन विधि से सेवन करने से मनुष्य कि बुद्धि,धैर्य,स्मरण शक्ति,कार्य शक्ति क्षय हो जाता है जिसके कारण उसके कार्य,विचार,वाणी,आदि कलुषित हो जाते हैं और व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ और असहाय हो जाता है|
इस प्रकार आप कह सकते हैं आयुर्वेद सिर्फ एक चिकित्सा पद्धति ना होकर मनुष्य के जीवन को स्वस्थ और दीर्घायु बनानेवाला जीवन दर्शन है| जो व्यक्ति को प्रत्येक ऋतू व मौसम के अनुसार जीवन जीने और आहार-व्यवहार करने कि सलाह देता है| प्रकृति जिस रूप में भी हमारे चारों ओर है वो हमारे लिए मददगार ही है ये अलग बात है कि हम प्रकृति को समझ नहीं पते है फलस्वरूप हम प्रकृति से बिमुख होते जा रहे है आज हम अपने आस-पास के फल-फुल, पेड़-पौधे, झाड़ी-जंगल के गुण-दोष से हम अनभिज्ञ होते जा रहे हैं जिसके कारण हम अस्वस्थ व असहाय होते जा रहे हैं| जैसे यदि हम किसी अन्य देश में चले जाये जहाँ कि भाषा हमें मालूम न हो तो प्यास लगी होने पर भी हम पानी नहीं पी पायेंगे यद्धपि पानी वहां घर में या आसपास उपलब्ध हो तो भी, सोचिये ऐसा क्यों ? हम अस्वस्थ और उसका निदान हमारे आसपास ही है लेकिन अज्ञानवश हम जान नहीं पते और इधर से उधर भटकते है जिसके कारण हम आर्थिक मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ीत होते रहते है| हमारे आस-पास जो-जो पेड़ पौधे जंगल-झाड़ हैं वो सभी औषधि हैं हमें मालूम नहीं कि ये कौन सा औषधि है और इसका उपयोगिता क्या है? फलतः हम इसे कुड़ा कचरा समझ कर इसे फेक देते है| कहते हैं “गोदी में बच्चा और नगर में ढिढोरा” ठीक उसी प्रकार हमारा जीवन होते जा रहा है इसीलिए हमें आयुर्वेद के शरण में जाना होगा प्रकृति के सानिध्य में बैठना होगा क्योंकि आयुर्वेद हमें प्रकृति से और अपनी चेतना से जोड़ती है और श्रेष्ठ जीवन शैली का ज्ञान देती है| सोचिये हमारे पास सबके लिए समय है सिर्फ अपने लिए नहीं यदि हम सिर्फ एक घंटा नित्य योग-ध्यान करेंगे तो कई बीमारी और परेशानी से बच सकते है क्युकी जब हम बीमार होते है तो ना सिर्फ अपने लिए बल्कि परिवार के लिए भी दैनिक जीवन के क्रियाकलाप को असंतुलित कर देते है परेशान कर देते है| स्वस्थ व्यक्ति अपना भला करता है साथ ही परिवार और समाज का भी भला करता है|
हम अन्य चिकित्सा पद्धति में देखते है कि डॉक्टर केवल रोगग्रस्त अंग अथवा रोग के लक्षणों कोही देखते है और उपचार करते है जबकि आयुर्वेदाचार्य का मानना है कि कोई भी रोग केवल शारीरक अथवा केवल मानसिक नहीं नहीं हो सकता क्युकी शारीरिक रोगों का दुस्परिणाम मन पर होता है और मानसिक रोगों का दुस्परिणाम शरीर पर होता है अर्थात दोनों एक दुसरे से भिन्न नहीं है इसलिए भगवान् धन्वन्तरी ने शारीरिक और मानसिक रोगों का कारण वात पित्त और कफ (जिसे त्रिदोष भी कहा गया है) का असंतुलन बतलाया है| जिससे हमारे शरीर में भिन्न भिन्न व्याधि उत्पन्न होते है| आयुर्वेदिक औषधियों में भी हम देखते है कि ये हमारे शरीर में किसी प्रकार का बुरा या जहरीला प्रभाव नहीं छोड़ते क्युकी ये औषधियों रासायनिक ना होकर हर्बल है अर्थात इनका स्रोत पेड़-पौधे, फुल-पत्ती के
जड़,तन,छाल,फुल-पत्ती है| इस चिकित्सापद्धति में हम केवल औषधी कि ही चर्चा नहीं करते बल्कि उसके पथ्य-अपथ्य, खान-पान, रहन-सहन सब के बारे में बतलाते और संयमित होकर रहने को कहते है क्यों कि हम रोग को जड़ से मिटाते हैं रोग के मूल कारण को ढ़ूंढ़ कर उसे नष्ट कर देते हैं और इसका कोई साईड़ इफैक्ट भी नहीं पड़ता है यह सस्ता सुगम्य और सुबोध है| अन्य चिकत्सा पद्धति में विभिन्न प्रकार के जाँच कराओ जिससे पैसा इतना खर्च होता है कि माध्यमवर्ग और निम्नवर्ग के लोगो का आर्थिक स्थिति ख़राब हो जाती है जबकि एक कुशल वैध केवल नारी देखकर ही आपका उपचार करते है| |
आपको याद होगा गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है कि “क्षिति जल पावक गगन समीरा पंच रचित अति अधम शरीरा” भारतीय दर्शन एवं योग में पृथ्वी(क्षिति), जल(अप), अग्नि(ताप), वायु(पवन) एवं गगन(शुन्य) को पंचतत्व या पंचमहाभूत कहा जाता हैं| पंचतत्व को ब्रह्माण्ड में व्याप्त लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कारण और परिणति माना गया है| हिन्दू विचारधारा के सामान यूनानी अथवा जापानी तथा बौद्ध मतों में भी पंचतत्व को महत्वपूर्ण एवं गूढ़ अर्थोवाला माना गया हैं| उसीप्रकार आयुर्वेद भी शरीर और शरीर के मूल आधारों दोष(त्रिदोष वात,पित्त,कफ), धातु(सात प्रकार के रस,रक्त,मांस,अस्थि,मज्जा,शुक्र), मल(मल,मूत्र,पसीना,आदि) कि उत्पत्ति इन्हीं पंचमहाभूत से ही मानता है| जब सभी के शरीर इन्ही पांच महाभूतो से निर्मित है तो फिर विभेद या व्याधियां क्यों? विचारणीय प्रश्न है? ऐसा इसलिए क्युकी यह सत्य व प्रमाणित है कि एक पदार्थ में ये पांचो महाभूत विद्ध्मान होते हैं तो भी किसी एक महाभूतो कि प्रधानता होती हैऔर अन्य महाभूत कि परिमाप या मात्रा में भिन्नता पायी जाती है जिससे सभी में विभेद या व्याधियां भी भिन्न भिन्न होती है| वैसे तो हमारे शरीर पंच महाभूतो से निर्मित है तथापि ये त्रिदोष(वात,पित्त,कफ) कि प्रधानता रहती है क्यों कि शरीर में जितने भी तत्त्व पाये जाते वे सब इन तीनो मेही अन्तर्निहित है| ये त्रिदोष ही शरीर कि उत्पत्ति,पालन और विनाश का कारण भी है क्युकी शरीर कि भौतिक रासायनिक और वैज्ञानिक सभी क्रियाओ का नियमन भी ये त्रिदोष ही करते है| जब ये दोष संतुलित व सामान्य स्थिति में होते है तो हमारा शरीर निरोगी,सुन्दर व फुर्तीला होता है लेकिन जैसे ही इनमे किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होती है अर्थात असंतुलन (त्रिदोषों कि कमी या वृद्धि मात्रा में) होती है तो शरीर व्याधियों से घिर जाता है जब ये सामान्य अवस्था में होते हैं तो धातु और मल भी शरीर में सामान्य अवस्था में होते है लेकिन त्रिदोषों के असंतुलन से ये भी असंतुलित हो जाती है और कई प्रकार के रोग को उत्पन्न करते है|
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